March 11, 2013

एक घर, एक टिल्ला, एक समाज
 

राजस्थान के एक जिल्ला में जाने का मौका हुआ।

शहर से दूर जहाँ कोई जाना नहीं चाहता
उस जगह पर एक टिल्ले पर एक परिवार का एक घर है।

हर घर मट्टी का, हर घर की दिशा ऐसी की बहार आते ही सब कुछ खुला और साफ़ दिखाई दे
दूर दूर तक बस टिल्ले और उन पर घर और खुला आसमान।

एक घर से दुसरे घर जाने के लिए टिल्ले पार करने, पैदल
न कोई गाड़ी, न साइकिल और न ही बैलगाड़ी का काम।

हर टिल्ले पर छोटी सी सीधी ज़मीन पर या फिर ढलान या कहीं कुछ छोटा सा बांध बनाकर
हर कोई अपने ज़रुरत का खाना उगता।

और अगर हम जैसे लोग कहीं वहां पहुच जाये तो ख़ुशी ख़ुशी फल बाँट भी लेते
किसके टिल्ले पर है, किसने उगाया है इससे क्या फरक पड़ता है
मानो जैसे सब कुछ सबके लिए हो।

और

उन्हें सीखाने पहुचते है, कुछ बाबु
स्कूल, सर्टिफिकेट, कोट, सूट पहने
सब जानते, सबकुछ समझाते
विकास की गाड़ी में
इन "पिछड़े" समाज को भी खीचना चाहते
उन्हें अपने जैसा बनाना चाहते